सोमवार, 9 जून 2008

अतिथि संपादक की कलम से....


लघुकथा अपने विकास-क्रम में आगे चलकर वही नहीं रही जो हमारे पुराणों, मिथकों, दंतकथाओं आदि में समाहित हैं जिनमें दिव्य व्यवहारों यानी ईश्वर की ओर से मनुष्य के प्रति किये गये आचरण का वर्णन मिलता है। यह वर्णन व्यवहारों को उचित भी ठहराता है। यही प्रवृत्ति प्राय: विश्व-साहित्य में मिलती है। वैसे पूरे विश्व साहित्य को पंचतंत्र और अरेबियन नाइट्स के किस्सों ने अनुवादो के जरिये प्रत्यक्ष रूप से भी प्रभावित किया है।

आप सबों को आश्चर्य होगा कि अमेरिका, यूरोप और भारत में आधुनिक कहानी-विधा का आरंभ लगभग एक ही साथ उन्नीसवीं सदी के मध्य में हुआ। रूस में भी गागोल की कहानियाँ 1842 तक छपी थी। जो आधुनिक रूसी कहानी के आरंभकर्ता माने गये। तुर्गनेव का कहना था कि हम सब कहानीकार गोगोल के ओवरकोट में से निकले हैं । ओवर कोट गोगोल की प्रसिद्ध कहानी का नाम है। अमेरिका में 1850 के बीच कहानी स्वतंत्र विधा बन चुकी थी और लघुकथा जैसे संज्ञाओं का त्याग कर सक्रिय लेखन में लघुकथाकार सक्रिय रहे । इन रचनाओं में जीवन के सामान्य अनुभवों को यथार्थ में चित्रण करने का आग्रह था। यथार्थ जीवन की प्रवृति के पीछे ही 1858 में फोटोग्राफी जैसे यंत्र तैयार किये गये जिसने जीवन में वास्तविकता के महत्व को बढा दिया। लघुकथा में विश्वसनीयता लाने के लिए वास्तविक चित्रण को जरूरी समझा गया।

भारत में कथाओं, लघुकथाओं को कहने की बहुत ही बेहतरीन परंपरा थी। वाचिक परंपरा कथा वाचक में अपना स्वयं का व्यतित्व और कहने की रोचक शैली के चलते कथा या लघुकथा में सच्चाई और विश्वसनीयता आ जाती थी। बाद में कथाएँ, लघुकथाएँ छापे खाने के युग में विधा का विस्तार की । लघुकथा की अर्न्तवस्तु और बाहय वस्तु बाजारवाद की जरूरतों से भी प्रभावित होती रही हैं। ज्यादातर पत्र-पत्रिकाएँ ही लघुकथाओं को प्रायोजित करती हैं। एक ओर ये पत्रिकाएं लघुकथा की मांग पैदा करती हैं तो दूसरी ओर उन्हीं से उसकी पूर्ति भी। ऐसे में लघुकथा से सतहीपन और फार्मूले बाजी को भी बढ़ावा मिला। विश्व साहित्य में चेखव, ओ हेनरी, मोपासां, गोर्की, लूसून, माधवराव सप्रे, पदुमलाल पुन्ना लाल बख्शी, प्रेमचंद्र,सॉमरसेट-मॉम, काफ्फा, नुट हैंसम ,कन्फ्यूशियस, कार्ल सैंडबर्ग, यानुश ओशेका काजीमेज, ओर्लोस, सआदतहसन मंटो, होराशिया क्वीरोजा, तुर्गनेव, खलील जिब्रान, ऑस्कर वाइल्ड, मार्कट्बेन, शेक्सपियर,कार्ल सैंडबर्ग जैसे महान लघुकथाकारों ने दिखा दिया हैं कि इस विधा में जीवन और परिवेश के अंर्तविरोधों को उखाड़ने की पर्याप्त ताकत और उर्जा हैं। लघुकथा अत्यंत गंभीर प्रभाव क्षमता रखती हैं। इसमें जटीलता और विस्तार भले न हो परंतु सार्थकता प्रदान करती हैं। पिछले सौ वर्षो में लघुकथा के कई संरचनागत तत्वों की पहचान हुई हैं। सभी विद्वान मानने लगे हैं कि लघुकथा का लघुकथापन हैं उसका कथा तत्व ।

आठवें नौवें दशक में छत्तीसगढ़ अंचल के लघुकथा कारों के योगदान को झुठलाया नहीं जा सकता हैं। उन दिनों नारायणलाल परमार, विभु खरे, आचार्य सरोज द्विवेदी, रवीन्द्र कंचन, डा.राजेन्द्र सोनी, डा.महेन्द्र ठाकुर, चेतन आर्य,जय प्रकाश मानस, भावसिंह हिरवानी देश के प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में निरंतर छपते रहे हैं। 1980 में लघुकथा लेखन को आंदोलित करने के लिए डॉ. राजेन्द्र सोनी ने अपने पिताश्री स्व. रामलालजी सोनी की स्मृति में लघुकथा प्रतियोगिता का आयोजन शुरू किये। प्रथम, द्वितीय एवं तृतीय लघुकथाकारों को पुरस्कृत भी किया गया। यह आयोजन देश की एकमात्र लघुकथा के लिए समर्पित पत्रिका लघुआघात इन्दौर म.प्र. के माध्यम से होती थी।

देश के प्रमुख लघुक़थाकारों की श्रेणी में आने वाले विक्रम सोनी लघुआघात के संपादक थे। यह पत्रिका पहले आघात फिर लघुआघात के नाम से प्रकाशित हुई जो विगत दो दशक तक प्रकाशित होती रही हैं। ऐसे प्रतियोगिता के माध्यम से सैकड़ों नये रचनाकार सामने आये, जिनकी लेखनी में दमखम था। आज वे देश के प्रतिष्ठित लघुकथाकारों की श्रेणी में आते हैं ।

डॉ. महेन्द्र कुमार ठाकुर के संयोजन में 1982 में एक ऐतिहासिक सम्मेलन लघुकथा पर केंद्रित सुदुर जगदलपुर जैसे पिछड़े अंचल में किया गया था जिसमें लघृुकथा पोस्टर प्रदर्शनी,लघुकथा पाठ एवं व्याख्यान रखा गया था। विक्रम सोनी एवं रामेश्वर शुक्ल अंचल की प्रमुख भागीदारी र्री। उस आयोजन को आज भी देश के तमाम लघुकथा कार नहीं भूल पाये हैं। उन्हीं दिनों डॉ. राजेन्द्र सोनी एवं मोह.मोईन्नुद्दीन अतहर के संपादन में नवें दशक की लघुकथाएं नाम से संकलन सामने आई जिसमें जबलपुर एवं छत्तीसगढ़ अंचल के रचनाकार शामिल थें। जिनमें स्वप्ेश्वर (लतीफ धोंधी),विश्वनाथ जोशी, राजेश चौकसे, अरूण कुमार शर्मा, विजय कृष्ण ठाकुर, मोह. मोईन्नुद्दीन , सुधीर कुमार सोनी, कुंवर प्रेमिल, श्रीमती आभा झा, गिरीश पंकज, डॉ. महेन्द्र कुमार ठाकुर, श्रीराम ठाकुर दादा, गुरनाम सिंह रीहल एवं डॉ. राजेन्द्र सोनी जैसे प्रमुख हस्ताक्षर शामिल हैं। यह सब देख कर मुझे विश्वास हो गया हैं कि छत्तीसगढ़ के लघकथाकार कहीं भी थिरके नहीं हैं।

लघुकथा पर केन्द्रित दिनांक 16 एवं 17 फरवरी को राजधानी में आयोजित अंतरराष्ट्रीय लघुकथा सम्मेलन दीर्घकालीन खामोशी को अवश्य गतिमान करेगी। लघुकथा पर अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन हो और राजधानी से लगभग तीन दशक से प्रकाशित हो रही पत्रिका पहचान-यात्रा त्रैमासिक ऐसे समय में खामोश रहे कहाँ सभव है? विगत दो वर्षो की खामोशी के बाद साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्था सृजन-सम्मान रायपुर का यह आयोजन पूरे विश्व में ऐतिहासिक सिद्ध होगा मेरा विश्वास है ।

इस अवसर पर पहचान-यात्रा का विश्व लघुकथा अंक आपको सौंपते हुए मुझे अत्यंत प्रसन्नता हो रही हैं। मैं वर्ष-वैभव के संपादक श्री देवेन्द्र जैन एवं अन्य लघुकथाकारों को हदय से धन्यवाद देना चाहूँगा, जो समयानुकुल सामाग्री प्रेषित किये। यह अंक आपको कैसा लगा। अपनी प्रतिक्रिया हम तक भेजने का कष्ट करेंगे । बस इतना ही.....

0 जयंत कुमार थोरात
11 फरवरी बसंत पंचमी 2008

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